कवच कुंडल का रहस्य: छत्तीसगढ़ के इस गुफा मे आज भी मौजूद है कर्ण का कवच

कवच कुंडल का रहस्य- द्वापरयुग (लगभग 5000 वर्ष पूर्व) मे महाभारत का युद्ध भले ही पाण्डवों और कौरवों के बीच हुआ था लेकिन इस युद्ध मे बहुत सारे महान वीर दोनों सेनाओ के पक्षों से लड़ रहे थे। दानवीर कर्ण इस युद्ध मे कौरवों के पक्ष से अपने ही भाइयों के विरुद लड़ रहे थे। हालकि इसका ज्ञान उन्हे अंतिम क्षण हुआ था।

ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

सूर्य के अंश से कर्ण का जन्म माता कुंती से हुआ था। लेकिन इनका पालन पोषण एक सूत परिवार मे हुआ। कर्ण को कवच और कुंडल जन्म से ही अपने मानस पिता सूर्यदेव से उनकी रक्षा हेतु वरदान मे दिया था। कर्ण का कवच कुंडल अभेद्य था, जिसे कोई भी अस्त्र या शस्त्र भेद नहीं सकता था न ही कोई कर्ण कवच कुंडल के होते परास्त कर सकता था।

कर्ण विश्व के महान और त्याग के देवता सूर्यदेव के पुत्र थे। कवच और कुंडल के साथ ही त्याग और दान का ये वरदान उन्हे अपने पिता से ही मिला था, और यही उनकी मृत्यु का कारण भी बना। कर्ण एक महान, दानवीर और पराक्रमी शूरवीर योद्धा होने के साथ ही अर्जुन के समतुल्य धनुर्धारी थे, फिर उनकी मृत्यु अपने ही भाई अर्जुन के हाथों हुई थी। कर्ण का अंत भले ही महाभारत मे हुआ हो लेकिन उनकी दानवीरता आज भी अमर है, आज भी लोग उनकी दानवीरता की उदाहरण दिया जाता है। 

आखिर क्यों इन्द्रदेव ने छल से कर्ण का कवच कुंडल छीना? क्या अभी भी धरती पर मौजूद है कर्ण का कवच कुंडल?  

श्री कृष्ण कहते हैं:- जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।

महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास (महर्षि कृष्णद्वैपायन) द्वारा की गई है। इसे एक पौराणिक काल द्वापर युग की घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और इसका मूल उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों और मनुष्य को नैतिक शिक्षाओं का बोध करना है।  

क्या है कवच कुंडल का रहस्य: क्या आज भी धरती पर मौजूद है कर्ण का कवच कुंडल

कवच कुंडल का रहस्य
कवच कुंडल का रहस्य

कैसे हुआ कर्ण का जन्म ?

 विश्व के महान त्यान के देव सूर्य के अंश से कुंती से कर्ण का जन्म हुआ था। कुंती को ऋषि दुर्वासा से देवहुति मंत्र प्राप्त हुआ था  जब कुंती केवल परीक्षण के लिए सूर्यदेव से देवहुति मंत्र से एक पुत्र मांग लिया और उन्हे अविवाहित ही  माँ बनना पड़ा । जिसके फलस्वरूप भय और लाज से दुखी होकर एक टोकरी मे सुला कर गंगा मे बहा दिया। 

बाद मे नदी पास एक सूत स्त्री को मिला और वही सूत परिवार मे ही उनका पालन पोषण हुआ जिनका नाम कर्ण पड़ा। उनका जीवन एक सघर्ष होने के बावजूद भी वह एक अत्यंत वीर और कुशल योद्धा बने, वह अपनी अंतिम सांस तक दान देने का संकल्प लिया था।  

कर्ण का कवच कुंडल कितना शक्तिशाली था, क्या इतनी शक्ति थी की वह ब्रमहस्त्र से उसकी रक्षा कर सके?

कर्ण के मानस पिता भगवान सूर्य देव के वरदान से कर्ण रक्षा की हेतु जन्म से ही कवच कुंडल प्राप्त था। कर्ण का कवच इतना शक्तिशाली था की संसार का कोई भी अस्त्र या शस्त्र भेद नहीं सकता था यही सूर्यदेव का वचन था। लेकिन ब्रमहस्त्र एक ऐसा अस्त्र है जो कभी निष्फल नहीं होता हो सकता है यकीनन यह कवच को भेदने मे समर्थ था और यह श्री कृष्ण को ज्ञात था। 

इसीलिए यह सुनिश्चित किया कि किसी देवता के दिए वचनों का मान मर्दन नही न हो , श्री कृष्ण कभी भी ब्रमहस्त्र जैसे अस्त्र चलाने कि अनुमति नहीं दे सकते थे जो कर्ण के कवच कुंडल को भेद दे और भगवान सूर्य देव का वचन निष्फल हो जाए। 

क्या इन्द्र देव ने छल से माँगा था कवच कुंडल

कारण- 1. परसुराम से छल 2. अधर्म का साथ  3. राज्यसभा मे द्रोपती का अपमान 

कर्ण दानवीर होने के साथ ही एक पराक्रमी योद्धा थे, लेकिन युद्ध मे वह अधर्म का साथ दे रहे थे। कर्ण के पास कवच कुंडल के होते उन्हे युद्ध मे पराजित करना असंभव था। इसीलिए युद्ध के कुछ दिन पहले ही श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन के दैवीय पिता भगवान इन्द्र ने  ब्राम्हण का रूप धारण कर कर्ण से उनका कवच कुंडल दान मे मांग लिया। कर्ण के पिता सूर्यदेव ने आगाह किया था की देवराज इन्द्र ब्राम्हण रूप धारण कर कवच कुंडल दान मांगने आएंगे। यह जानते हुए भी कर्ण एक स क्षण सोचे बिना ही अपना कवच कुंडल दे दिए और अपने दानवीरता का प्रमाण  सिद्ध कर दिए जिसका उदाहरण आज भी दिया जाता है। 

क्या कर्ण का पिछले जन्मों का कर्म था ?

कर्ण के साथ जन्म से ही नियति ने क्रूर मजाक किया था। जन्म से माता का तिरस्कार, शिक्षा मे गुरु द्रोण का तिरस्कार, सूत पुत्र कहकर स्वयंवर मे अपमान तथा छल से कवच कुंडल का छीना जाना। जन्म से ही उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा फिर भी आज भी वह  महादानी , महान धनुर्धर और महान योद्धा जाने जाते है। 

पौराणिक कथा अनुसार सतयुग मे दुरदुम्भ (दम्भोद्धवा) नाम के राक्षस केतपस्या से  प्रसन्न होकर उसे 100 कवच और दिव्य कुंडल का वरदान दिया था जो भी उसका एक कवच तोड़ता उसकी रक्षा हेतु दूसरा कवच आ जाता। दुरदुम्भ के अत्याचार से सभी देवगण विष्णु से सहायता मांगने गए।  वो सहायता हेतु वचन दिए। राक्षस दुरदुम्भ का वध वही कर सकता है जो 1000 वर्ष तपस्या की हो। भगवान विष्णु के अंश नर नारायण  मे से नारारण ने युद्ध शुरू किया और  उनका एक एक कवच तोड़तए गए जबकि  नर ने 1000 वर्ष की तपस्या की। 

द्वापर युग मे दुरदुम्भ का जन्म  कर्ण के रूप मे सूर्यदेव के अंश से कवच और कुंडल के साथ हुआ तथा  भगवान विष्णु के अंश नर 1000 वर्ष तपस्या कर के इन्द्रदेव के अंश अर्जुन के रु मे जन्म लिए। अतः द्वापर युग मे राक्षस दुरदुम्भ को  भगवान विष्णु के हाथों मोक्ष की प्राप्ति हुई। 

महाभारत के बाद कवच कुंडल का क्या हुआ?

इन्द्रदेव ने कवच और कुंडल कर्ण छल पूर्वक से ले तो लिया था लेकिन छल से प्राप्त कोई वस्तु देवलोग नहीं लिया जा सकता। लेकिन तभी आकाशवाणी हुई और इन्द्रदेव का रथ वही धस गया जिसेसे वही  छुपाना पड़ा ।हमे आज भी महाभारत के की साक्ष्य भिन्न भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए है। माना जाता है की कर्ण के कवच कुंडल आज भी धरती पे किसी सुरक्षित स्थान मे छुपा पड़ा है।

कहाँ है कर्ण का कवच कुंडल: छत्तीसगढ़ की इस गुफा मे छुपा है कवच कुंडल

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में स्थित एक रहस्यमयी गुफा से सूर्य की किरणों के सामान रौशनी आती है, तथा इस गुफा के अंदर जाने का रास्ता आज तक किसी को नहीं मिला है। बस एक छोटा रास्ता है जहा तेज रोशनी आती है, हैरान करने वाली बात तो यह है की गुफा के पास हजारों साल पुरानी पहिये की निशानी भी है।

अतः यहा रहने वाले लोग इस बात का दावा करते है की यह हजारों साल पुरानी द्वापर युग की है और यह इन्द्र देव के रथ की धसी हुई पहिये की निशानी है जब वह छल पूर्वक कर्ण से कवच कुंडल दान मे मांग लिया था तो श्राप के कर्ण उनकी रथ आगे नहीं बढ़ सका और धस गया तथा सूर्य की किरणों जैसी पीली रोशनी कवच और कुंडल की है जिसे इन्द्रदेव ने इस गुफा मे सुरक्षित छुपाना पड़ा। 

 

बीजापुर- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर’ से 432 कि.मी. दक्षिण की और स्थित है। इंद्रावती राष्ट्रीय उद्धयान छत्तीसहगढ़ की 3 राष्ट्रीय उद्धयानों मे  एक बीजापुर मे स्थित है। बीजापुर मे पमेड वन्यजीव अभयारण्य ,भैरमगढ़, वन्यजीव अभयारण्य भी स्थित है 

अन्य पर्यटन स्थल- 1. भैरमदेव मंदिर 2. भद्राकाली मंदिर 3. नंबी जलधारा 4. लंकापल्ली जलधारा 

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